बीमार बिस्तर पर स्वास्थ्य सेवा, लेकिन किसे परवाह?पालघर के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थकर्मियो के आधे से ज्यादा पद खाली पड़े होने से दम तोड़ती स्वास्थ्य व्यवस्था,इस पर हेडलाइंस 18 ने कुछ महीने पहले ग्राउंड रिपोर्ट आपके सामने पेश की थी । आज आपको निजी अस्पतालों के कमाई मॉडल से रूबरू करा रहे है ।
पालघर के जिला बनने के आठ साल बाद भी ज्यादातर सरकारी अस्पताल खुद बीमार है ,जिले में 9 ग्रामीण अस्पताल और 3 उपजिला अस्पताल पर 10 लाख के करीब लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी है ।
जिले के इन स्वास्थ्य केंद्रों में सामान्य सर्दी, बुखार का इलाज तो मिल जाता है लेकिन आज के समय की सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे एक्सरे, अल्ट्रासॉउन्ड समेत अन्य जांच के उपकरणों की यहां कोई व्यवस्था नहीं हैं। इन स्वास्थ्य केंद्रों में लम्बे समय से कई स्वास्थ्य कर्मियों के पद भी खाली है। यहां के अधिकतर मामलों में मरीजों को गुजरात,सिलवासा और मुंबई, ठाणे नासिक के अस्पतालों में जाना पड़ता है अन्यथा निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है । सरकारी स्वास्थ्य सेवा की बदहाली के कारण से जिले में आए दिन बड़े बड़े निजी हॉस्पिटल खुलते जा रहे है ।
पालघर में मरीज़ों को सही समय पर एम्बुलेंस न मिलने, उचित उपचार की कमी, डॉक्टरों की सीमित उपलब्धता कई और कारणों के चलते अब तक कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन इसके बावजूद भी जिले की की स्थापना के 8 सालों के बाद भी पालघर जिले के सरकारी अस्पताल बीमार है व निजी अस्पताल फल फूल रहे है ।
निजी अस्पतालों का कमाई मॉडल
निजी अस्पतालों का कमाई मॉडल लोगों की जेब पर भारी पड़ने लगा है। करोड़ों की लागत के बाद मुनाफे के लक्ष्य की कीमत मरीजों को चुकानी पड़ रही है।पैसे कमाने की होड़ में अस्पतालों के कॉरपोरेट मॉडल ने डॉक्टरों की फीस बढ़ाने के साथ सुविधाओं के नाम पर रुपये ऐंठना भी शुरू है।वहीं, दूसरी ओर बदहाल सरकारी व्यवस्था के बीच जिंदगी की आस लेकर निजी अस्पताल जाना मरीजों और उसके परिजनों के लिए मजबूरी भी है।
यह भी सच्च है कि राजनीतिक संरक्षण के कारण ही निजी अस्पताल तेजी से बढ़े हैं। सरकारी अस्पतालों की बदहाल व्यवस्था के कारण अधिकांश लोगों का सरकारी अस्पताल से विश्वास उठता जा रहा है और इसका फायदा निजी अस्पताल जमकर उठा रहे हैं।
हर अस्पताल का का अपना वर्किंग बिजनेस मॉडल
बदहाल सरकारी व्यवस्था के बीच जिंदगी की आस लेकर निजी अस्पताल जाना मरीजों और उसके परिजनों के लिए मजबूरी भी है। अलग अलग हॉस्पिटल में भर्ती मरीज को चेकअप विजिट के चार्ज 3 से 5 हजार है बाकी अन्य चार्ज के अलावा रुम चार्ज तो 3 स्टार होटल के बराबर है । अब छोटे बड़े अस्पतालों में 50 हजार तक के बिल तो आम हो गए है अब तो लाखों तक के बिल भी सामने आ रहे है जिससे सवाल उठने लगे हैं कि आखिर इन जैसे अस्पतालों की फीस इतनी अधिक क्यों है?
अलग अलग अस्पताल का अपना वर्किंग बिजनेस मॉडल है। इसमें छोटे ओहदे पर तो डॉक्टरों को फिक्स तनख्वाह दी जाती है, लेकिन धीरे-धीरे वह राजस्व और लाभांश के भी हकदार हो जाते हैं। इसमें फार्मास्यूटिकल कंपनियों का भी बड़ा योगदान है।कई निजी अस्पतालों के मकसद इलाज के साथ साथ मोटा मुनाफा कमाना है। हॉस्पिटल में लगने वाली मशीनें, व्यवस्था और सेवाओं के शुल्क का जरिया केवल मरीज ही होता है। जिसके कारण बेलगाम चार्ज वसूला जाता है।
इन बिजनेस मॉडल पर करते हैं काम
● लाभांश मॉडल
इसमें डॉक्टर कोई फीस लेने के बजाय अस्पताल के कुल आमदनी में अपना लाभांश लेते हैं। इसमें आमतौर पर ऐसे नामचीन डॉक्टर होते हैं, जिन्हें किसी विशेष विधा में महारत हासिल है। इसमें हर ऑपरेशन, टेस्ट और ओपीडी फीस के वार्षिक आकलन के आधार पर डॉक्टर अपना लाभांश तय करते हैं। इसमें बड़े अस्पताल नामचीन डॉक्टर के आसरे अधिक मरीजों को खींचने के लिए यह मॉडल अपनाते हैं।
● सर्विस मॉडल
इसमें हर सेवा के बदले एक फीस तय की जाती है। विभिन्न विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवाएं ली जाती है। इसके एवज में चिकित्सक अस्पताल में 15-20 फीसदी रकम लेता है। इसी रकम के जरिये वह पूरी तरह से अस्पताल का संचालन व रखरखाव का काम करता है। आमतौर पर छोटे अस्पताल इस तरह का मॉडल अपना रहे हैं।
● राजस्व मॉडल
इसमें सभी डॉक्टरों को एक लक्ष्य दिया जाता है। सभी डॉक्टरों को अच्छी तनख्वाह के साथ मरीजों की संख्या भी बताई जाती है। इसमें मरीज से होने वाली आमदनी के आधार पर उन्हें पैसे दिए जाते हैं। यदि डॉक्टर दिए गए लक्ष्य से कम मरीज देखता है तो उसकी तनख्वाह भी काट ली जाती है।
● सैलरी मॉडल
अमूमन सभी अस्पतालों में ओपीडी में तैनात डॉक्टरों को सैलरी मॉडल के तहत तनख्वाह दी जाती है। जूनियर डॉक्टरों से लेकर बड़े ओहदे पर तैनात डॉक्टरों को तनख्वाह दी जाती है। इसके साथ ही उन्हें इंसेंटिव भी दिया जाने का प्रावधान किया जाता है। अधिक मरीज देखने के एवज में अधिक पैसे मिलते हैं। इसमें टेस्ट समेत अन्य खर्चों का सीधे कोई भागीदारी नहीं होता है।
मोटी फीस के पीछे इनका भी रहता है हाथ
मोटी फीस के पीछे अस्पतालों में फार्मास्यूटिकल कंपनियों का बड़ा हाथ है। सामान्य दवा के एवज में किसी ब्रांड का नाम लिखने के बदले में डॉक्टरों को बड़ा कमीशन दिया जाता है। साथ ही निजी अस्पतालों की मेडिकल स्टोर खुद के सांठगांठ वाले होते है ,हॉस्पिटल के चार्ज व फीस के साथ साथ दवाई के कमीशन के लालच में वहां भी बेहिसाब अंगुलिया चलाई जाती है,मिलझुलाकर कटना मरीज को ही होता है । जिन हॉस्पिटलों में लेब ,एक्सरे,सिंटी स्केंन व अन्य जांच उपकरण नही है जिसके लिए अन्य जगह भेजते है वो भी भेजने वाले हॉस्पिटल के कनेक्ट में रहते है ।
कई दवाई कम्पनियां कमीशन के साथ उन्हें देश या विदेशों के दौरे, समय-समय पर गिफ्ट, बच्चों की पढ़ाई समेत कई तरह की सुविधाएं दी जाती हैं। इन सुविधाओं के लालच में स्वास्थ्य सेवा को व्यापार बनाये डॉक्टर वह दवा लिखते हैं।
ब्रांडेड दवाई का बाजार बना बड़ा उद्योग
ब्रांडेड दवाई जहां 200 रुपये की होती है, वहीं जेनरिक महज 15-20 रुपये में आ जाती है। इसके कारण मरीजों को एक सामान्य दवा के लिए अधिक कीमत चुकानी पड़ती है।
ब्रांडेड दवाइयों के खेल में पीस रहे मरीज
अगर डॉक्टरों के लिए जेनेरिक दवा लिखना अनिवार्य कर भी दिया जाए तो भी गारंटी नही की कीमतों पर लगाम से मरीजों को फायदा मिलेगा । ब्रांडेड दवा और जेनेरिक दवा की कीमतों में भी 204 गुना तक का अंतर होता
क्योंकि जेनेरिक दवाओं के प्रिंट रेट यानी इन दवाओं पर छपने वाली कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं है। ब्रांडेड मेडिसिन पर फार्मासिस्ट को 5 से 20 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है, पर जेनेरिक मेडिसिन की प्रिंट रेट और रीटेलर की खरीद कीमत में 50 गुना से 350 गुना तक का अंतर होता है। इसका आम जनता या मरीजों को उतना फायदा नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। ऐसे में सरकार को जेनेरिक मेडिसिन के प्रिंट रेट पर भी लगाम लगाने की जरूरत है, वरना जनता को कोई फायदा नहीं होने वाला।
आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का “केमिकल सॉल्ट’ होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे- दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड जैसे- क्रोसिन के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है। चौंकाने वाली बात यह है कि सर्दी-खांसी, बुखार और बदन दर्द जैसी रोजमर्रा की तकलीफों के लिए जेनरिक दवा महज 10 पैसे से लेकर डेढ़ रुपए प्रति टैबलेट तक में उपलब्ध है। ब्रांडेड में यही दवा डेढ़ रुपए से लेकर 35 रुपए तक पहुंच जाती है। देशभर में आज अस्पताल एक व्यवसायिक उधोग बन गया है ।
इस विषय पर पालघर जिला सिविल सर्जन से संपर्क किया तो सवाल सुनकर बिना जवाब दिए ही फोन काट दिया ।
इस विषय पर हमारी नजर बनी हुई है,हमने निजी अस्पतालों के कई बिलो की जांच पड़ताल की है । अगले भाग में आपको निजी अस्पतालों में चल रहे कमाई के खेल के बारे में और भी जानकारी आपके सामने जल्द ही रखी जायेगी ।