पालघर : कौन जान सकता है कि धरती के अन्दर क्या पक रहा है? पर कहीं ना कहीं तो कोई ज्वाला जरुर भड़क रही होगी, जो धरती की सतह को फोड़ कर कभी ज्वालामुखी से पिघले हुए मैग्मा बन कर निकलती है तो कभी गर्म पानी की सतत बहने वाली धारा के रूप में बाहर आ कर हमें आश्चर्यचकित कर देती है. मुंबई महानगर के बिलकुल नजदीक पालघर जिले में ऐसे गर्म पानी के सोतों जो अपने आप मे अद्भुत है. गणेशपुरी के सोतों करीब लगभग २ किलोमीटर दूर स्थित वज्रेश्वरी का धाम है, जो मन्दाकिनी नामक पर्वत की तलहटी में बसा हुआ है. मन्दाकिनी पर्वत के उठान के बारे में कहा जाता है कि वह पश्चात् काल में हुई किसी ज्वालामुखी विस्फोट के कारण बना था. इस शहर के ठीक मुख्य चौक पर विशाल किलेनुमा “वज्रेश्वरी योगिनी देवी का मंदिर” है. इस शहर का नामकरण यहाँ की अधिष्ठात्री देवी वज्रेश्वरी के नाम पर हुआ है.

मंदिर के सामने फूल-माला, साड़ी-ओढ़नी, पूजन सामग्री इत्यादि की दुकानें लगी हैं. वहीँ पर आस-पास के इलाके में जाने के लिए ऑटोरिक्शा और तांगे भी मिलते हैं. काफी चहल-पहल बनी रहती है. मंदिर प्रांगण के बाहर चप्पलें इत्यादि रखने के लिए आमतौर पर फूल-माला बेचने वाले दुकानदार सहयोग करते हैं, वैसे मंदिर प्रबंधन ने मुख्य दरवाज़े को पार करने के बाद किनारे पर चप्पल-जूता स्टैंड भी बना रखा है. मंदिर का मुख्य दरवाज़ा ऊँचाई पर है, जहाँ तक जाने के लिए 52 सीढियाँ चढ़नी पड़ती हैं. कई श्रद्धालु-भक्त इन सीढ़ियों पर चढ़ते समय प्रत्येक कदम पर कपूर की बत्तियां जलाते हैं. ऐसा वे तब करते हैं, जब उनकी कोई मन्नत पूरी हो जाती है. लगभग आधी ऊँचाई सीढियाँ चढ़ने पर एक सुनहरे रंग का कछुए की प्रतिमा लगी है, जिसे भगवान् के कूर्म-अवतार का प्रतीक माना जाता है.

मंदिर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर एक नक्कारखाना है, जहाँ से पश्चात् काल में संगीतकार धुनें बजाते होंगे. बाहर से यह मंदिर एक छोटे किले के रूप में दीखता है. इस किला-रुपी मंदिर की कहानी मराठा-पोर्तुगीस युद्ध से जुड़ी हुई है. १७३९ के पहले पोर्तुगीस शासक वसई के किले से शासन करते थे. लोगों के बीच उनकी क्रूरता की कहानियाँ थीं. तब पेशवा बाजी राव-प्रथम के छोटे भाई चीमा जी अप्पा ने वसई किले को फ़तह करने के लिए डेरा डाला. लगभग तीन वर्षों के युद्ध के बाद भी किला फ़तह नहीं हो सका. तब चीमा जी अप्पा ने देवी वज्रेश्वरी का पूजन किया. लोकोक्ति है कि पूजन के बाद देवी ने स्वप्न में उनको वासी किले को जीतने का तरीका बताया. बताये हुए तरीके से युद्ध करने से वसई किला मराठों ने जीत लिया और पोर्तुगिसों को खदेड़ दिया. जीत के बाद चीमा जी अप्पा ने वज्रेश्वरी देवी का मंदिर बनवाया. मंदिर के मुख्य दरवाज़े पर उनकी वीरता की कहानी सुनहरे अक्षरों में आज भी अंकित है.

मंदिर के गर्भ-गृह में वज्रेश्वरी देवी की मूर्ति है, जिसमें उनके हाथों में तलवार और गदा है. उनके साथ रेणुका देवी की भी मूर्ति है, जो भगवान् परशुराम की माता थीं. तीसरी प्रतिमा सप्त्श्रींगी देवी की है, जो महिषासुर-मर्दिनी थीं. वहीँ महालक्ष्मी का भी विग्रह है. वज्रेश्वरी देवी की कहानी वज्र नामक अस्त्र से सम्बंधित है. कहानी के अनुसार हजारों वर्ष पूर्व, इस इलाक़े में, कल्लिका नामक एक राक्षस रहता था, जिसके दुराचरण से सभी ऋषि-मुनि परेशान थे. उसकी यातनाओं से परेशान हो कर महर्षि वशिष्ठ ने एक यज्ञ किया, जिससे देवी प्रसन्न हो गयीं. पर उसी यज्ञ में देवताओं के राजा इंद्र को आहुति नहीं दी गई, जिसके कारण उन्होंने क्रुद्ध हो कर अपने “वज्र” नामक अस्त्र से प्रहार कर दिया. वज्र को आता देख कर सभी देवी की शरण में आ गए. उन्हें अपनी शरण में ले कर देवी ने सभी की रक्षा की और साथ में काल्लिका राक्षस को भी मार डाला. एक दूसरी कहानी के अनुसार इंद्र ने अपना वज्र कल्लिका राक्षस पर चलाया था. जब राक्षस ने वज्र को भी निष्क्रिय करने की कोशिश की, तो देवी ने वज्र में समां कर कल्लिका का वध कर दिया. इसी वजह से इन देवी का नाम वज्रेश्वरी प्रसिद्ध हुआ.
मुख्य मंदिर के बाहर प्रांगन में कपिलेश्वर महादेव मंदिर, दत्त मंदिर, हनुमान मंदिर इत्यादि कुछ और मंदिर हैं. पीपल के एक वृक्ष की भी पूजा होती है, क्योंकि उसका आकार गणेश मूर्ति से मिलता-जुलता है. कुछ महत्वपूर्ण लोगों की समाधियाँ भी उसी प्रांगन में हैं,
मुख्य मंदिर के बगल से सीढ़ियों वाला एक रास्ता उस पर्वत की चोटी पर जाता है. लगभग 150 सीढियाँ है वहा चोटी पर एक बड़ा मंडप भी बना हुआ है, जिसमें १७वीं शताब्दी के एक संत की समाधी है.

तानसा नदी की धाराओं में श्रद्धालु लेते है,नदी के तट पर सीमेंट से घेर कर चार कुंड भी बने हुए थे. इन कुंडों में गर्म पानी के स्रोत थे, जिनसे धरती के अन्दर से लगातार गर्म पानी निकलता रहता है. वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि धरती के अन्दर ज्वालामुखी के प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न चट्टानों में फँसी हुई जलधारा के धरती को किसी कमज़ोर स्थान पर फोड़ कर निकलने से इस प्रकार के गर्म स्रोतों का प्रादुर्भाव होता है. इस प्रकार के जल में सल्फ़र की मात्रा होती है, जो चर्म-रोग की समस्या से निज़ात देता है. कई लोग नदी के किनारे उन कुंडों में स्नान कर रहे थे. आश्चर्य तो यह है एक तरफ़ नदी की ठंडी धारा बह रही थी और उसी के किनारे पर गर्म पानी का सोता भी है .पानी इतना गर्म है कि यदि सावधानी ना बरती जाए तो पैरों में फोले हो सकते हैं.
यहां पर कुल मिला कर सात सोतें हैं. चार सोते तो नदी के तट पर ही है, जिनके ऊपर लोगों की सुविधा के लिए सीमेंट के कुंड बना दिए गए है. अन्य तीन सोते बिलकुल नदी की धारा के बीच में स्थित है. किनारे से देखने पर नदी की धारा के बीच में ही तीन अलग-अलग सीमेंट के कुंड बने हुए दीखते है. यह कुंड गर्म पानी से सोतों के ऊपर बने है. पर वास्तव में धरती के अन्दर से इन सोतों से गर्म पानी निकलता है और ऊपर से नदी की ठंडी धारा बहती है. ऐसा आश्चर्य आपको पहले कभी भी देखने को नही मिला होगा कि नदी बह रही हो और उसी में गर्म पानी से सोते भी हों.
इनमें से एक कुंड तो बिलकुल नदी के मध्य में है, जहाँ सिर्फ़ तैराक ही जा सकते है. पर जो कुंड नदी के किनारे से थोड़ी दूरी पर ही है, उनमें सभी जा सकते है. भाप निकलता तेज गर्मी का अनुभव पाकर आश्चर्य नहीं तो और क्या है कि नदी की ठंडी धाराओं के मध्य में धरती से गर्म पानी भी निकल रहा है. लोकोक्ति है कि जिन दानवों का देवी ने वध किया था, उनके गर्म रक्त की धारा इन सोतों से निकली थी, वही कालांतर में गर्म पानी के सोतों में परिवर्तित हो गई.
